गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

जानवर

हाँ

मैंने माना कि मै जानवर हूँ

हाँ

मैंने माना कि मै जानवर हूँ

पर................

क्या?

तुम अपने को इंसान कह सकते हो ?

मैंने न मारा किसी को

न की गाली -गलोच

न किसी को रुलाया- सताया

पर

तब भी न जाने क्यों?

जानवर मै कहलाया

कहते है तुम हो बुद्धिमान

पर क्या बचा पाए तुम अपना इमान

नहीं तुम इंसान नहीं

तुम भी हो एक जानवर

जो दूसरो को नोचता हुआ

रिश्तों को तोड़ता हुआ

बस आगे बढ़ना चाहता है

चाहे उसके लिए उसे जानवर(खुन्कार ) ही क्यों न होना पड़े

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

ऐसा क्यों होता है ?

क्यों?
तुम्हारे चुप रहने से
दुखी होने से
मुझे दर्द होता है
क्यों ?
तुम्हारे किसी गैर के साथ रहने से
हंसी ठिठोले करने से
उसके बारे में मुझसे भी ज्यादा सोंचने से
उसके लिए कुछ करने से
मुझे दूरी का अहंसास होता है
क्यों ?
हमेशा मैंने चाह की तुम मेरे पास रहो
तुम मेरे ही साथ रहो
मेरे होकर रहो.......
ये दर्द
ये अहंसास
ये चाह
आखिर........
मुझे सिर्फ ''तुम'' ही से क्यों है ?

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

आम आदमी और महंगाई


बस में बैठी ही थी कि अचानक से वो मेरे पास आकर बैठ गया, मुझसे सुना कुछ नही ( उसकी बातों से ऐसा लगा भी की वो सुनना नही बल्कि सुनाना ही चाहता है ) बस ख़ुद ही बोलता गयाl पहले तो मै कुछ घबरा- सी गयी पर उसकी बात को ध्यान से सुना तो लगा की वो अपनी बात किसी को सुनाना चाहता हो वो बिना मेरी ओर देखे बस टिकट , आटा , खर्चा , आदि कि बातों में ख़ुद ही उलझा रहाl जब मैंने एक बार उसकी तरफ़ देखा तो उसने भी अपनी बात और ज्यादा विश्व्वास के साथ कहनी शुरू कर दी उसके कपड़े और बोलने के ढंग को देखने से लगा की वो कोई छोटा सा काम करने वाला आदमी है जिसकी monthly incom बहुत ही कम है मेरे stand ( art feculty ) तक वो मुझसे सिर्फ़ अपनी हालत और हालात के बारे में ही कहता गयाl मुझे उसकी बातों को सुनना अच्छा लग रहा था (क्योकि दूसरे के बारे में हम कम ही सोच पाते हैं और बोल पाते हैं )इसलिए मै उसकी बात बस सुनती ही चली जा रही थी और उसके देखने पर बस गर्दन ही हिला रही थी इतने में मुझे सरकार की पानी महंगा करने की बात याद आई और मन में जाने कितने ही सवाल उठने लगे की इस महंगाई को क्या सब लोग झेलने की हिम्मत रखते है? सरकार को अगर चीज़ों के दाम ज्यादा ही करने थे तो सभी के दाम एक साथ महंगे करने जरुरी थी ? या चीज़ों के दाम धीरे- धीरे कर के भी बढाए जा सकते थे lइस समाज / देश में सारे लोगों की आर्थिक स्थिति क्या एक सी ही है ? जो लोग महीने के सिर्फ़ और सिर्फ़ 5000 रूपये कमाते है क्या वो ये बस का किराया ,ये महँगी साग- सब्जी ,ये पानी का बिल झेल पाएगा जबकि इसी पैसो में उसे घर का खर्च भी चलाना है ,अपने बच्चे को स्कूल भी भेजना है और समाज के सारे रीती -रिवाजों को भी निभाना है क्या इस तरह से आत्महत्याएँ , depression, tension आदि बिमारियाँ नही बढेंगी ? इन बातों के बारे में सोचना भी उतना ही जरुरी है जितना की महंगाई को बढ़ानाl सरकार को इस बारे में भी कुछ सोंचना चाहिए l

शनिवार, 21 नवंबर 2009

कोशिश


लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है.
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है.
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है.
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में.
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो.
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्श का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम.
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

शनिवार, 7 नवंबर 2009

आख़िर अपराधी कौन?


काफी दिनों से तबीयत ठीक सी नहीं चल रही थी, आस- पास के डॉ. से दवाई लेने के बावजूद भी आराम नही पड़ रहा थाl तब मै अपने घर से थोड़ी दूरी पर एक दूसरे डॉ. से दवाई लेने चली गयीl मेरा नंबर पाँचवा था तो मेरे पास उन मरीजों को देखने के अलावा और कोई काम भी नहीं था धीरे - धीरे तीसरा नंबर आया वो आदमी अपनी २५ -३० बरस की लड़की की दवाई लेने आया था देखने में दुबला- पतला सा था और कपड़े भी मैले से ही पहने हुए थे उसकी लड़की काफी कमज़ोर सी और उसे देख कर ऐसा लगता था की मानो शरीर का सारा खून खत्म ही हो गया हैl दवाई लेने के बाद वो आदमी अपनी बेटी को लेकर घर जाने लगा उसने लड़की को सीढियों से आराम से उतारा फ़िर अपने कंधे पर उसे बिठाकर ऐसे ही अपने घर ले जाने लगा क्योकि वो ख़ुद भी इतना कमज़ोर था कि ........और शायद इसीलिए भी कुछ लोंगो ने उसे देख कर कहा कि ''बाबा तुम ऐसे कैसे इसे ले जाओगे किसी रिक्शे वाले को बुला लो'' तब उसने कहा कि ''बुला तो लूँ पर मेरे पास उसे देने को पैसे नहीं हैं जो पैसे थे उससे इसकी दवाई ले चुका हूँ'' उसके ऐसा कहने पर किसी ने भी आगे कुछ नहीं कहा बस सब उस बूढे को देखते ही रहे और शायद कुछ सोंचते रहे ,उन सोंचने वालों में से एक मै भी थी, मै उसकी help करना चाहती थी पर कर ना सकी ,उससे कुछ पूछना चाहती थी पर पूछ भी न सकी और घर आकर अपने आपको अपराधी सा समझने लगी पर फ़िर लगा कि इस बात के लिए क्या सच में ही मै दोषी हूँ या आज की परिस्थितियाँ ही ऐसी बन गयी हैं कि आज चाहते हुए भी कोई किसी पर विश्वास ही नहीं कर पाता ,हम चाह कर भी किसी की help नहीं कर पाते किसी के लिए कुछ कर नहीं पाते आज जहाँ भी देखो ( बस में, सड़कों पर , शैक्षिक संस्थानों आदि आदि ) के आस- पास कोई न कोई ऐसा खड़ा हुआ मिल ही जाता है जो झूठ बोल- बोल कर लोगो के पैसे ऐंठना चाहता है और कभी -कभी तो ये लोग ग़लत हरकतों पर भी उतर आते हैं शायद ये ही ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से एक दूसरे पर लोगो का भरोसा कम होता जा रहा है

रविवार, 1 नवंबर 2009

अनुभव

दिन की दुपहरी में ,
बिलखता वह नवजात
शायद इंतज़ार में,
जो हटा यह उमस,
देगा छाँव

उसका यह रूदन
यह पीडा,
कोई नही पहचानता
और,

वह काया
जिसने पुण्य पाया था
जा चुकी थी
पर..............

अब भी है देखा करती
पंक सम छाया को
मैंने महसूस किया है
हाँ, मैंने अनुभव किया हैl

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

''गुनाहों का देवता'' में ऐसा क्या ?


बहुत दिनों से भाषा विज्ञान से कुछ अलग पढने का मन था, पीएच.डी का विषय भाषाविज्ञान होने के कारण अधिकतर इसी में उलझ कर रह जाती हूँ पर पिछले ही हफ्ते जब मै अपने दोस्तों के साथ बैठ कर किसी विषय पर कुछ बात कर रही थी, तो बात आगे बढ़ते -बढ़ते ''गुनाहों का देवता''(धर्मवीर भारती ) पर आकर रुकीl मेरे एक दोस्त ने इस उपन्यास की कुछ इस तरह से तारीफ की कि मेरा मन भी इसे दोबारा पढ़ने के लिए बेचैन हो गया और मैंने इसे अपने एक मित्र से मंगा कर एक बार फिर पढ़ डाला l पूरा उपन्यास पढ़ने के बाद दो दिनों तक मेरे मन में न जाने क्या चलता रहा कि मै इसके बारे में सोचते हुए भी इसके बारे में न तो कुछ कह ही पाई और न ही कुछ चर्चा ही कर पाईl कई सवाल ऐसे थे जो मेरे मन में बार -बार आ रहे थे मैंने महसूस किया की कई बार हम अपनी झूठी शान के लिए अपनों का जीवन तक बर्बाद करने को तैयार हो जाते हैंl हम समझते नहीं या समझने की कोशिश ही नहीं करते कि हम भी कभी गलत हो सकते हैं, हम क्यों किसी की ज़िन्दगी से इस हद तक खिलवाड़ कर जाते हैं कि बिना उससे कुछ जाने समझे उसके बारे में बिना उससे पूछे उसके ही जीवन का फैसला तक ले लेते हैं जैसे वो कोई इंसान न हो बल्कि एक जानवर हो जिसकी रस्सी जिधर भी खींच दोगे वो उधर ही चल पड़ेगा जैसे उसके जीवन पर उसका तो कोई अधिकार है ही नहीं और कई बार हम खुद भी न जाने क्यों ऐसे सोच लेते हैं कि हमारे जीवन , हमारी इच्छाओं का फैसला हमसे ज्यादा अच्छे से कोई दूसरा ले सकता हैl धर्मवीर भारती ने इसमें संबंधो / रिश्तों कि जो प्रगाढ़ता दिखाई है वह सच में अद्भुत है कभी -कभी हम खुद भी समझ नहीं पाते कि आखिर इन दोनों (सुधा-चंदर )के बीच रिश्ता क्या है? कभी ये संबंध राखी के सूत से भी ज्यादा पवित्र हो जाता है तो कभी प्रेमी -प्रेमिका की तरह (मै तुम्हारे मन को समझता हूँ , सुधा! तुम्हारे मन ने जो तुमसे नहीं कहा ,वह मुझसे कह दिया था) और फिर कभी ये रिश्ता भगवान् और भक्त का सा जान पड़ता है ( झुक कर चंदर के पैरों को अपने होटों से छू लिया और पलकों से दो आँसू चू पड़े,....................... ) तथा (घबराओ न देवता , तुम्हारी उज्ज्वल साधना में मै कालिख नहीं लगाऊँगी ) इस तरह इतना प्रगाढ़ रिश्ता होने के बावजूद भी जाति ,समाज, मान आदि के बन्धनों को देखते हुए वे दोनों अपना रिश्ता आगे नहीं बढा पाते और न ही दोनों में से कभी कोई खुश ही रह पाता है यहाँ तक कि अन्त में बात सुधा की जान पर आ बनती है और वह अपना दम तोड़ देती है और इस तरह जाति ,बिरादरी ,मान -सम्मान ,समाज के कारण एक लड़की दबावों में रहते हुए आखिर में अपना दम, तोड़ देती है जब मैंने ये पढ़ा तो मुझे लगा कि जो बात धर्मवीर जी ने कई साल पहले लिखी थी आज भी तो वही स्थितियां हैं आज भी हम लगभग रोज़ाना ही इस खबर को अख़बार में देख सकते हैं कि फलां जगह पर प्रेमी-- प्रेमिका को मारा गया गया , गोली चलाई , जला दिया आदि आदिl आज भी हमारे हालात बदले कहा हैं? ५०-५५ सालो बाद भी (धर्मवीर जी के इस उपन्यास के लिखने के ) हम आज भी इतने दबे हुए है कि आज भी हम इस तरह की स्तिथि का सामना करने से डरते हैं और क्यों समाज व्यक्ति को इतना मजबूर कर देता है कि व्यक्ति अपनी इच्छाओं का खुद ही गला घोंट देता है? जाति का झंडा लेकर हम किस तरह से अपनों कि खुशियाँ छीनने तथा उनकी ज़िन्दगी बर्बाद करने तक को तैयार हो जाते हैं माना परम्पराएं समाज का अंग हैं पर क्या ये परम्पराएं कभी बदलती नहीं? जब ये परम्पराएं समाज के साथ - साथ बदलती रहती है तो हम क्यों पुरानी बातों को लेकर बैठे रहते हैं ? हम सुधार तो चाहते हैं पर खुद सुधरने कि बात नहीं करतेl एक दूसरी बात जो मुझे इसमें अच्छी लगी वह यह थी कि इसमें शारिरीक संबंधों को लेकर एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है धर्मवीर जी लिखते हैं ''शरीर की प्यास भी उतनी ही पवित्र और स्वाभाविक है जितनी आत्मा की पूजाl आत्मा कि पूजा और शरीर की प्यास दोनों अभिन्न हैं आत्मा कि अभिव्यक्ति शरीर से है, शरीर का संस्कार आत्मा से हैl जो आत्मा और शरीर को अलग कर देता है वही मन के भयंकर तूफानों में उलझकर दूर- दूर हो जाता हैl '' ये वाक्य मुझे इतने सुन्दर लगे की मेरा मन ये सोचने लगा की समाज में शारिरीक संबंधों को लेकर इतना कठोरपन क्यों है? क्यों इसे प्यार का एक हिस्सा नहीं माना जाता? और क्यों हमारे स्कूलों , कालेजों में इसकी शिक्षा विद्याथियों को नहीं दी जाती? क्यों बार -बार स्कूलों में सेक्स शिक्षा का मुद्दा उठते -उठते बार- बार अधर में ही लटक जाता है? क्यों हम लोग इस मुद्दे पर सही से बात नहीं कर पाते यहाँ तक की शर्म से आँखें झुका लेते हैं इन सभी बातों पर विचार करते- करते मुझे लगा की हर बात को सही तरीके से सोचिए समझिये फिर कुछ करिए और हो सके तो समाज को सही बनाने , कुछ करने में शामिल होइए क्या पता इसी सब से कुछ सुधर जाये l फ़िर मैंने सोंचा कि उपन्यास तो अच्छा खासा है फ़िर ऐसी क्या वजह रही कि इतनी प्रतियों कि बिक्री होने के बाद भी और एक अच्छा खासा मुद्दा होने (जहाँ तक मुझे लगता है इसमे कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर हम बात कर सकते हैं जैसे क्या समाज में आज भी प्रेम विवाह को वर्जित माना जाए? क्या दो लोंगों को यदि वे साथ में रहना चाहे, अपने दुःख- सुख बिताना चाहे तो क्या उन्हें साथ में रहने का अधिकार नही है? क्या जाति क बन्धनों के कारण हमे अपनों को मौत के मुँह में धकेल देना चाहिए? क्या जाति किसी की ज़िन्दगी से भी बड़ी हो सकती है आदि आदि ) अतः मुझे लगता है कि इसमे कुछ ऐसे मुद्दे है जिन पर हम चर्चा कर सकते है फ़िर दूसरी तरफ़ यदि हम शिल्प को देखे तो जहाँ तक भाषा का सवाल है कि साहित्य सभी क लिए होता है ये बात इस पर बिल्कुल फिट बैठती है इसकी भाषा बिल्कुल सीधी- सपाट है शायद तभी ये न सिर्फ साहित्य के विद्यार्थियों बल्कि साहित्येतर छात्रों में भी यहाँ तक की आम पाठकों के बीच भी अपनी जगह बना सका(ये बात और है कि विश्व विद्यालयों के सिलेबस में इसी किसी खास पॉलिटिक्स के तहत शामिल नहीं किया गया होगा; शायद परिमल बरक्स प्रगतिशील की पॉलिटिक्स) लेकिन हाँ, आवश्यकता होने पर उपन्यासकार ने भाषा में बदलाव भी किया है और कुछ घुमावदार बातें भी कही हैं , ऐसा लगता है कि वे भाषा में चमत्कार पैदा करने की बजाए अपना मुख्य कथ्य ही संप्रेषित करना चाहते थे जहा तक चरित्रों को देख कर मुझे जो लगा वह ये है कि चरित्रों में कुछ ज्यादा ही उतार -चढाव है अन्त में उनमे (यदि सुधा को छोड़ दे तो )एकदम से नाटकीयता दे दी गयी है पर फ़िर भी किसी भी साहित्य प्रेमी को इसमे कुछ न कुछ मिल ही जाएगा ऐसी मुझे आशा है क्योंकि यदि मूल कथ्य के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह अपने लिए एक अलग ही जगह रखता ह इसमे कोई शक नहीl

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

जनता अब सरकार की मोहताज नहीं.......

केवल सरकार के नाम पर या उसके पिछलग्गू होकर ही गावों/ शहरों का विकास नहीं किया जा सकता बल्कि यदि आपसी प्रेम,सौहार्द और भाईचारे की भावना हो तो हम बड़े से बड़ा काम भी आसानी से कर सकते हैं l ऐसा ही एक उदाहरण सीतामढ़ी और मुजफ्फरपुर के औराई ब्लाक के लोगों ने कर दिखायाl सीतामढ़ी के बसतपुर इलाके में पुल न होने के कारण लोगों को काफी दिक्कतों का सामना( गंदे पानी में जाने के कारण खुजली जैसे रोग तथा सर्दियों में नदी पार करना एक समस्या बन जाती थी जिससे इस इलाके के लोगों का दूसरे इलाके के लोगों से संपर्क टूट जाया करता थाl )करना पड़ता थाl गाँव के लोगों ने सरकारी अधिकारियों से कई बार इसकी शिकायत की पर जब उनकी तरफ से कोई सहारा नहीं मिला तो इन मुसीबतों को दूर करने के लिए मुजफ्फरपुर के औराई ब्लाक की दर्जन भर पंचायतो और सीतामढ़ी के बसतपुर पंचायतो के लोगों ने सरकार की सहायता के बिना खुद ही मेहनत तथा रूपये इकठ्ठा कर 125 फीट का बांस का पुल तैयार कियाlपुल का कुल खर्चा 1 लाख रुपये आया तथा महीने भर से भी कम समय में पुल बनकर तैयार भी हो गयाl इस प्रकार का कार्य करके उन्होंने सरकार को तो करारा जवाब दिया ही है साथ ही आपसी भाईचारे की भावना को भी बढाया हैl गाँव के लोगों ने सरकार से खफ़ा होकर पुल पर एक नोटिस भी लगा दिया है जिसमे लिखा है ''अपने पुल पर 'अपने ' लोग चलेंगे, न नेता न अधिकारी'' इतना ही नहीं वे डटकर कहते हैं किउन्हें इस बात कि भी कोई परवाह नहीं है कि बाढ़ आने से बांस का पुल ढह जाएगा बल्कि वे तो यहाँ तक कहते हैं कि हर बार पुल टूटने पर वे नया पुल बनाएंगे और सरकार के सामने इस मुद्दे को उठाते रहेंगेl इस प्रकार इन लोगों ने यह दिखा दिया है कि विकास के नाम पर केवल सरकार का रोना हम कब तक रोते रहेंगेl आज जरुरत है कि हम खुद आगे बढ़ कर अपना विकास खुद करें और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करेंl अगर हम सरकार के ही भरोसे रहकर बैठे रहें और सोंचते रहें कि यह काम हमारा नहीं (भले ही उसके कारण हमें कई असुविधाओं का सामना ही क्यों न करना पड़े और सरकार के नाम पर वह कार्य महीनों/ सालों तक प्रगति पर ही क्यों न अटका रहे) तो इससे न तो हम ही कभी विकास कर पाएँगे और न ही हमारा देश ही कभी विकसित हो पाएगाl हमें सीतामढ़ी और मुजफ्फरपुर के लोगों से सीख लेनी चाहिए जिन्होंने यह दिखा दिया है कि जनता अब सरकार की मोहताज नहीं है और अगर हम चाहें तो खुद अपने बल पर भी काम कर सकते हैंl आखिर कब तक हम सरकार की ओर आशा भरी निगाहों से देखते रहेंगे .....?????

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

सत्ता के सहारे

सरकारें सत्ता में अपने पैर जमाये रखने के लिए लागों को कुछ न कुछ प्रलोभन(सुविधायें) देती ही रहती है( ये बात और है कि सरकारें ये काम अपने घोषणापत्र में ही अधिक दिखाती है उनका काम या तो सालों प्रगति पर रहता है या अंडर-कंसीडरेशन.
कभी वह किसानों का क़र्ज़ माफ़ करती है तो कभी राज्य-स्तर पर लाडली जैसी योजनायें चलाती है या फिर कभी वृद्धावस्था, विधवा आदि पेंशनें देकर हर आय-वर्ग के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है यातायात की अच्छी तरह बहाली के लिए और प्रदुषण और सड़क दुर्घटनाओ का हवाला देकर लो-फ्लोर जैसी महंगी बसें चलाती है मेट्रो जैसी सुविधा दी जाती है तथा एम्.सी.डी स्कूलों में भी बच्चों को मिड-डे-मील दिया जाता है ये सभी काम चाहे सरकारों ने किसी भी फायदे के लिए किया हो लेकिन ये भी सच है कि इनसे लोगो को काफी फायदा मिल रहा है बेशक सरकारों को भी मिल चुका हो चुनावों में. अब इन्हें हम प्रलोभन कहें या कुछ और पर ये सच है. अभी हाल ही में एक खबर और मिली है कि केंद्र-सरकार ने ग्रामीण लोगों को उनके घर पर ही तत्काल न्याय दिलाने के लिए न्यायालय स्थापित करने का फैसला लिया है जो हमें लगता है समय और खर्च दोनों ही दृष्टियों से लोगो के लिए लिया गया एक बहुत ही अच्छा फैसला है इस तरह कि अदालतों से वो लोग भी न्याय कि उम्मीद लगा सकेंगे जिनके लिए न्यायालय एक सपने से अधिक और कुछ नहीं है इसके साथ ही केस का फैसला दायर अपील के छ महीनों के अंदर ही कर दिया जाएगा ये और भी ख़ुशी कि बात है इससे लोगों का समय और पैसा दोनों ही बच सकेगा . बस अब तो यही है यदि सरकार कि यह कोशिश सफल रहती है तो उसे सभी गावों को इससे जोड़ना चाहिए .

रविवार, 27 सितंबर 2009

साहित्य और संगीत

हमें हिन्दी साहित्य में संगीत के महत्व को समझना ही होगा साहित्य को यदि संगीत से जोड़ा जाए तो यह संगम कितना मनोहारी और अद्भुत होगा। इसका उदाहरण हमें १८ सितंबर को हिंदी अकादमी द्वारा कबीर के पदों की उड़िया नृत्य प्रस्तुती को देखने पर मिला। नर्तकी ने जिस भाव-भंगिमा के साथ कबीर के पदों को दर्शकों के समक्ष रख दिया उससे तो यही लगता था कि कबीर के पद सिर्फ सुनने,समझने और रटने माञ के लिए नहीं है उन्हें देखा भी जा सकता है। वो शांत शाम भुलाए से भी नही भूलेगी क्योंकि मेरे लिए ये एक अद्भुत अनुभव था एकदम शांत वातावरण में घुंघरुओ की आवाज़ मन को लुभा रही थी।उसी समय मन में एक सवाल उठा कि जब संगीत और साहित्य का इतना गहरा रिश्ता है तो क्यों नही इसे भी हमारे बी. ए. के पाठ्यक्रम में शामिल किया . यदि ध्यान से देखा जाए तो साहित्य के साथ संगीत अपने आप ही जुड़ा़ हुआ है। चाहे आदिकाल हो,भक्तिकाल हो या फिर आधुनिक काल। हर युग,हर समय मे संगीत की महत्ता को देखा-आंका जा सकता है। साहित्य ही क्या अन्य क्षेञों में भी इसकी महत्ता को देखा जा सकता है। बीरबल और अकबर के बारे में तो आप जानते ही हैं राणा कुम्भा के संगीत के योगदान को क्या हम भूल सकते हैं।

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

गोरी का सावन

देखो सावन आ गया रिमझिम बरसात की फुहार झरने लगी l
चारो तरफ हरियाली छाई , बंद कलियाँ भी अब खिलने लगीं l

इस भीगे हुए मौसम को देख, अब तो गोरी भी मचलने लगी l
काले-काले बादलों को देख, वो तो भीगकर नाचने लगी l

पिया का पैगाम पढ़ वो तो झूमने लगी l
सुर्ख हो गए लाल गाल उसके पैगाम पढ़
दुःख भरी दुनिया को देख
वो तो अब मुस्काने लगीl

सखियाँ भी छेड़े उसे पिया का नाम लेकर
बार-बार सुन नाम पिया का वो तो शर्माने लगीl

इस बरसात ने कर दिया मुश्किल जीना अब तो
चूडियाँ भी उसको जगाने लगीं l

हाय निगोडी ये पायल भी अब चुप न रह सकीl
उसकी झनक-झनक से जान गए सब
कि वो भी छिप-छिप के प्यार करने लगी l

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

"स्वार्थ"

क्या तुम वही हो ?
नहीं
तुम वो नहीं
तुम वो कैसे ..............?

क्या तुम वही हो
जिसके लिए
हमने
इतने सपने संजोये थे
सुन्दर कल्पनाएँ की थी
नयी उमंगें...... नयी आशाये....... मन में जगी थी
और आज
वे कल्पनाएँ. वे सपने, वे उमंगें, वे आशाएं,......
सब के सब
कहीं जाकर धूमिल से हो गए है .

याद है तो
अपना
सिर्फ और सिर्फ अपना
'स्वार्थ'