शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

"स्वार्थ"

क्या तुम वही हो ?
नहीं
तुम वो नहीं
तुम वो कैसे ..............?

क्या तुम वही हो
जिसके लिए
हमने
इतने सपने संजोये थे
सुन्दर कल्पनाएँ की थी
नयी उमंगें...... नयी आशाये....... मन में जगी थी
और आज
वे कल्पनाएँ. वे सपने, वे उमंगें, वे आशाएं,......
सब के सब
कहीं जाकर धूमिल से हो गए है .

याद है तो
अपना
सिर्फ और सिर्फ अपना
'स्वार्थ'

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