शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

''गुनाहों का देवता'' में ऐसा क्या ?


बहुत दिनों से भाषा विज्ञान से कुछ अलग पढने का मन था, पीएच.डी का विषय भाषाविज्ञान होने के कारण अधिकतर इसी में उलझ कर रह जाती हूँ पर पिछले ही हफ्ते जब मै अपने दोस्तों के साथ बैठ कर किसी विषय पर कुछ बात कर रही थी, तो बात आगे बढ़ते -बढ़ते ''गुनाहों का देवता''(धर्मवीर भारती ) पर आकर रुकीl मेरे एक दोस्त ने इस उपन्यास की कुछ इस तरह से तारीफ की कि मेरा मन भी इसे दोबारा पढ़ने के लिए बेचैन हो गया और मैंने इसे अपने एक मित्र से मंगा कर एक बार फिर पढ़ डाला l पूरा उपन्यास पढ़ने के बाद दो दिनों तक मेरे मन में न जाने क्या चलता रहा कि मै इसके बारे में सोचते हुए भी इसके बारे में न तो कुछ कह ही पाई और न ही कुछ चर्चा ही कर पाईl कई सवाल ऐसे थे जो मेरे मन में बार -बार आ रहे थे मैंने महसूस किया की कई बार हम अपनी झूठी शान के लिए अपनों का जीवन तक बर्बाद करने को तैयार हो जाते हैंl हम समझते नहीं या समझने की कोशिश ही नहीं करते कि हम भी कभी गलत हो सकते हैं, हम क्यों किसी की ज़िन्दगी से इस हद तक खिलवाड़ कर जाते हैं कि बिना उससे कुछ जाने समझे उसके बारे में बिना उससे पूछे उसके ही जीवन का फैसला तक ले लेते हैं जैसे वो कोई इंसान न हो बल्कि एक जानवर हो जिसकी रस्सी जिधर भी खींच दोगे वो उधर ही चल पड़ेगा जैसे उसके जीवन पर उसका तो कोई अधिकार है ही नहीं और कई बार हम खुद भी न जाने क्यों ऐसे सोच लेते हैं कि हमारे जीवन , हमारी इच्छाओं का फैसला हमसे ज्यादा अच्छे से कोई दूसरा ले सकता हैl धर्मवीर भारती ने इसमें संबंधो / रिश्तों कि जो प्रगाढ़ता दिखाई है वह सच में अद्भुत है कभी -कभी हम खुद भी समझ नहीं पाते कि आखिर इन दोनों (सुधा-चंदर )के बीच रिश्ता क्या है? कभी ये संबंध राखी के सूत से भी ज्यादा पवित्र हो जाता है तो कभी प्रेमी -प्रेमिका की तरह (मै तुम्हारे मन को समझता हूँ , सुधा! तुम्हारे मन ने जो तुमसे नहीं कहा ,वह मुझसे कह दिया था) और फिर कभी ये रिश्ता भगवान् और भक्त का सा जान पड़ता है ( झुक कर चंदर के पैरों को अपने होटों से छू लिया और पलकों से दो आँसू चू पड़े,....................... ) तथा (घबराओ न देवता , तुम्हारी उज्ज्वल साधना में मै कालिख नहीं लगाऊँगी ) इस तरह इतना प्रगाढ़ रिश्ता होने के बावजूद भी जाति ,समाज, मान आदि के बन्धनों को देखते हुए वे दोनों अपना रिश्ता आगे नहीं बढा पाते और न ही दोनों में से कभी कोई खुश ही रह पाता है यहाँ तक कि अन्त में बात सुधा की जान पर आ बनती है और वह अपना दम तोड़ देती है और इस तरह जाति ,बिरादरी ,मान -सम्मान ,समाज के कारण एक लड़की दबावों में रहते हुए आखिर में अपना दम, तोड़ देती है जब मैंने ये पढ़ा तो मुझे लगा कि जो बात धर्मवीर जी ने कई साल पहले लिखी थी आज भी तो वही स्थितियां हैं आज भी हम लगभग रोज़ाना ही इस खबर को अख़बार में देख सकते हैं कि फलां जगह पर प्रेमी-- प्रेमिका को मारा गया गया , गोली चलाई , जला दिया आदि आदिl आज भी हमारे हालात बदले कहा हैं? ५०-५५ सालो बाद भी (धर्मवीर जी के इस उपन्यास के लिखने के ) हम आज भी इतने दबे हुए है कि आज भी हम इस तरह की स्तिथि का सामना करने से डरते हैं और क्यों समाज व्यक्ति को इतना मजबूर कर देता है कि व्यक्ति अपनी इच्छाओं का खुद ही गला घोंट देता है? जाति का झंडा लेकर हम किस तरह से अपनों कि खुशियाँ छीनने तथा उनकी ज़िन्दगी बर्बाद करने तक को तैयार हो जाते हैं माना परम्पराएं समाज का अंग हैं पर क्या ये परम्पराएं कभी बदलती नहीं? जब ये परम्पराएं समाज के साथ - साथ बदलती रहती है तो हम क्यों पुरानी बातों को लेकर बैठे रहते हैं ? हम सुधार तो चाहते हैं पर खुद सुधरने कि बात नहीं करतेl एक दूसरी बात जो मुझे इसमें अच्छी लगी वह यह थी कि इसमें शारिरीक संबंधों को लेकर एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है धर्मवीर जी लिखते हैं ''शरीर की प्यास भी उतनी ही पवित्र और स्वाभाविक है जितनी आत्मा की पूजाl आत्मा कि पूजा और शरीर की प्यास दोनों अभिन्न हैं आत्मा कि अभिव्यक्ति शरीर से है, शरीर का संस्कार आत्मा से हैl जो आत्मा और शरीर को अलग कर देता है वही मन के भयंकर तूफानों में उलझकर दूर- दूर हो जाता हैl '' ये वाक्य मुझे इतने सुन्दर लगे की मेरा मन ये सोचने लगा की समाज में शारिरीक संबंधों को लेकर इतना कठोरपन क्यों है? क्यों इसे प्यार का एक हिस्सा नहीं माना जाता? और क्यों हमारे स्कूलों , कालेजों में इसकी शिक्षा विद्याथियों को नहीं दी जाती? क्यों बार -बार स्कूलों में सेक्स शिक्षा का मुद्दा उठते -उठते बार- बार अधर में ही लटक जाता है? क्यों हम लोग इस मुद्दे पर सही से बात नहीं कर पाते यहाँ तक की शर्म से आँखें झुका लेते हैं इन सभी बातों पर विचार करते- करते मुझे लगा की हर बात को सही तरीके से सोचिए समझिये फिर कुछ करिए और हो सके तो समाज को सही बनाने , कुछ करने में शामिल होइए क्या पता इसी सब से कुछ सुधर जाये l फ़िर मैंने सोंचा कि उपन्यास तो अच्छा खासा है फ़िर ऐसी क्या वजह रही कि इतनी प्रतियों कि बिक्री होने के बाद भी और एक अच्छा खासा मुद्दा होने (जहाँ तक मुझे लगता है इसमे कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर हम बात कर सकते हैं जैसे क्या समाज में आज भी प्रेम विवाह को वर्जित माना जाए? क्या दो लोंगों को यदि वे साथ में रहना चाहे, अपने दुःख- सुख बिताना चाहे तो क्या उन्हें साथ में रहने का अधिकार नही है? क्या जाति क बन्धनों के कारण हमे अपनों को मौत के मुँह में धकेल देना चाहिए? क्या जाति किसी की ज़िन्दगी से भी बड़ी हो सकती है आदि आदि ) अतः मुझे लगता है कि इसमे कुछ ऐसे मुद्दे है जिन पर हम चर्चा कर सकते है फ़िर दूसरी तरफ़ यदि हम शिल्प को देखे तो जहाँ तक भाषा का सवाल है कि साहित्य सभी क लिए होता है ये बात इस पर बिल्कुल फिट बैठती है इसकी भाषा बिल्कुल सीधी- सपाट है शायद तभी ये न सिर्फ साहित्य के विद्यार्थियों बल्कि साहित्येतर छात्रों में भी यहाँ तक की आम पाठकों के बीच भी अपनी जगह बना सका(ये बात और है कि विश्व विद्यालयों के सिलेबस में इसी किसी खास पॉलिटिक्स के तहत शामिल नहीं किया गया होगा; शायद परिमल बरक्स प्रगतिशील की पॉलिटिक्स) लेकिन हाँ, आवश्यकता होने पर उपन्यासकार ने भाषा में बदलाव भी किया है और कुछ घुमावदार बातें भी कही हैं , ऐसा लगता है कि वे भाषा में चमत्कार पैदा करने की बजाए अपना मुख्य कथ्य ही संप्रेषित करना चाहते थे जहा तक चरित्रों को देख कर मुझे जो लगा वह ये है कि चरित्रों में कुछ ज्यादा ही उतार -चढाव है अन्त में उनमे (यदि सुधा को छोड़ दे तो )एकदम से नाटकीयता दे दी गयी है पर फ़िर भी किसी भी साहित्य प्रेमी को इसमे कुछ न कुछ मिल ही जाएगा ऐसी मुझे आशा है क्योंकि यदि मूल कथ्य के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह अपने लिए एक अलग ही जगह रखता ह इसमे कोई शक नहीl

10 टिप्‍पणियां:

  1. गुनाहों का देवता एक समय मित्र एक दूसरे को उपहार मे दिया करते थे । इस पुस्तक का यह योगदान तो है कि इस ने सम्वेदनशीलता का एक स्तर विकसित किया और इस से आगे जाकर इसे देखने वाले भावुकता की स्थिति तक भी पहुंचे । हो सकता है कि इसने समाज मे क्रांतिधर्मिता के भाव को समाप्त किया हो लेकिन इन अनिवार्य परिस्थितियों से बचा नहीं जा सकता था । ऐसे ही आरोप अज्ञेय की नदी के द्वीप पर भी लगे लेकिन यह भी सच है कि इन पुस्तको की वज़ह से उस दौर के युवाओं मे पढ़ने की रुचि विकसित हुई। हाँलाकि बहुत से युवा उसके बाद प्रकाशित विपुल साहित्य नहीं पढ़ पाये और अभी भी वे ।गुनाहों के देवता पर अटके हुए है ।

    जवाब देंहटाएं
  2. यह उपन्यास अगर आपने अब पढ़ा है तो यह आपके जीवन का ऐसा मुकाम है, जहां इसे पढ़ा जाना चाहिए था। निश्चित रूप से जब-जब इस महान कृति की बात चलेगी तो कुछ ऐसे ही सटीक विश्लेषण सामने आएंगे। आपने शानदार लिखा है। आपसे एक और उपन्यास पढ़ने का अनुरोध कर रहा हूं...वैसे मुझे लगता है कि आपने इसे जरूर पढ़ा होगा। यह भी अपने समय का बेजोड़ उपन्यास है - मुझे चांद चाहिए...इसके लेखक हैं सुरेंद्र वर्मा।

    जवाब देंहटाएं
  3. मैंने 'गुनाहों का देवता' तब पढ़ी थी,जब मैं शायद दसवीं में थी.पर मुझे जहाँ तक याद है...इसमें सुधा और चंदर का मिलन ना होने के पीछे उनका विजातीय होना बिलकुल भी नहीं था...बल्कि सुधा,चंदर को अहसास ही नहीं हुआ कि उनके बीच कुछ कोमल भावनाएं पनप रही हैं...और जब अहसास हुआ तब देर हो चुकी थी...एक दूसरे पर अटूट विश्वास...एक दूसरे के बगैर जीना व्यर्थ लगे..ये सारे अहसास थे पर इसका नाम प्यार है....यह सुधा का दिल मानने को तैयार नहीं था...एक बार सुधा शायद रोती हुई कहती भी है.."उसने ये क्यूँ कहा कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ...मैं ना जाने तुम्हे क्या करती हूँ"....धर्मवीर भारती ने इन सारे अहसासों को बहुत अच्छी तरह उकेरा है.आज के युग में वह सब नाटकीय लग सकता है...पर उन दिनों का कथा शिल्प ऐसा ही होता था.
    'गुनाहों का देवता' की हिंदी साहित्य में वही जगह है,जो अंग्रेजी में 'रोमियो एन जुलिएट'..और 'प्राइड एन प्रेजुडिस'की है

    जवाब देंहटाएं
  4. रश्मि जी, मैंने जो अपनी बात कही थी उसके पीछे कुछ तर्क हैं जो मै आपको बताना चाहती हूँl आपने कहा कि सुधा और चंदर का मिलन न होने के पीछे उनका विजातीय होना बिल्कुल भी नहीं था........... आपकी ये बात यदि सुधा और चंदर के प्रेम तक की जाए तो बिल्कुल ही सही है कि वे दोनों प्रेम में जाति को महत्व नहीं देते थे पर जहाँ तक मिलन का सवाल है तो मिलन के लिए उन्हें शादी करनी पड़ती और शादी के लिए डॉ. शुक्ला की अनुमति आवश्यक थी क्योंकि चंदर नही चाहता था कि वह डॉ. शुक्ला की अनुमति के बगैर सुधा के साथ विवाह करे और वह जानता था कि डॉ. शुक्ला जाति व्यवस्था में बहुत अधिक विश्वास करते है इसलिए उसने अपने और सुधा के मन कि इच्छाओं को मार दिया

    उदाहरण के लिए डॉ. शुक्ला के ये शब्द -
    '' यही तो तुम लोगों में खराबी हैl कुछ थोड़ी-सी खराबियाँ जाति -व्यवस्था की देख ली और उसके खिलाफ हो गए.......अपने विकास-क्रम में वह उन्ही संस्थाओं,रीति-रिवाजों और परम्पराओं को रहने देती है जो उसके अस्तित्व के लिए बहुत आवश्यक होती है ........यह बहुत सशक्त है,अपने में बहुत जरुरी हैं ?''( पेज ४४,सैन्तालीसवा संस्करण )

    डॉ. शुक्ला- ''जब अलग -अलग जाति में अलग -अलग रीति -रिवाज हैं तो एक जाति की लड़की दूसरी जाति में जाकर कभी भी अपने को ठीक से संतुलित नहीं कर सकती l (वही )

    डॉ. शुक्ला की ऐसी बातों को सुनकर ही शायद चंदर अपनी और सुधा की बात डॉ. शुक्ला से नहीं कर पाया क्योंकि चंदर का मानना था कि जब डॉ. शुक्ला उन दोनों पर इतना विश्वास करते हैं तो उन्हें ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए जिससे डॉ. शुक्ला को दुःख हो तो यहाँ, जहाँ तक मुझे लगता है समस्या जाति की है
    बहरहाल आपने कमेन्ट किया मुझे अच्छा लगा शुक्रिया . और आप सभी ब्लोगर बंधुओं का भी दिल से शुक्रिया जो मुझे सुझाव देते है कमेन्ट करते है और मुझे सराहते है खासकर किरमानी साहब का . बहुत बहुत शुक्रिया .............

    जवाब देंहटाएं
  5. और जो आपने दूसरी बात कही कि उन दोनों को अहसास ही नहीं हुआ कि उनके बीच कुछ कोमल भावनाए पनप रही हैं तो मेरे पास इस बात के लिए कुछ उदाहरण हैं जिनसे मुझे लगता है कि उन्हें अपने प्यार का अहसास हो गया था जैसे ये उदाहरण देखिये:-
    चंदर कहता गया - मै तुम्हारे मन को समझता हूँ, सुधा! तुम्हारे मन ने जो तुमसे नहीं कहा , वह मुझसे कह दिया था-.......(पेज १०१)
    वह जानता था कि अपने हाथ से अपनी ख़ुशी को कब्र में गाद रहा है .........(पेज 104
    और जब चंदर उससे पूछता है कि आजकल तुम्हारी कविता में तबियत नहीं लगती तब सुधा कहती है कि उन दिनों शायद किसी से प्रेम करती होऊँगी( पेज 105
    ये सभी बाते उनकी शादी से पहले कि ही हैं तो मुझे जहाँ तक लगता है उन्हें अपने प्यार का अहसास हो गया था

    जवाब देंहटाएं
  6. vaise to maine bhaut books padhi hai par ab lagta hai gunaho ka devta bhi padhni padegi...

    जवाब देंहटाएं
  7. KYA SHANDAR TIPPANI KI HAI SAB LOGON NE.MAINE 10+2 KE JUST BAD ISE PADHA THA AUR USKE BAD BAHUT SE LOGON KO PADHA CHUKA HUN. SABHI PADHNE WALO ME EK CHIJ COMMON THI JIS KISI NE BHI PADHA , NAM ANKHON KE SATH HI KHATAM KAR PAYA

    जवाब देंहटाएं
  8. agar telegram ki bat chor de to kahi se nahi lagta ki ye novel 1949 me likhi gayi hogi

    जवाब देंहटाएं
  9. नहीं प्रतिमा, मुझे नहीं लगता कि यहाँ सुधा और चंदर का मिलन न होने का कारण जाती-व्यवस्था रहा हो। उनका प्रेम को उन्होंने कोई नाम देकर एक मान्य संबंध बनाने की दिशा में कदम इतने आगे बढाए ही नहीं थे की जहा उन्हें जाती-व्यस्था से अनुमति लेनी पड़े; कि बगैर उसकी अनुमति के वो उस स्थान से आगे न बढ़ पाए। मुझे लगता हैं उन दोनों के बीच चरम स्नेह होते हुए भी यह स्नेह यौन-प्रेम के रूप में नहीं था, या उन्होंने इस रूप की अनदेखी की। उन्होंने अपने प्रेम को सहज स्नेह की तरह ही महसूस किया, न की यौन-प्रेम की तरह। यौन-प्रेम से मेरा अर्थ हैं पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेमिका वाला प्रेम।
    उन्हें जब अपने प्रेम का एहसास हुआ तब तक देर हो चुकी थी। आपने ऊपर जो उद्धरण दिए वो ये दूसरी स्थितियों में कहे गए थे, जो ये नहीं सिद्ध करते वो यौन-प्रेम को महसूस कर रहे थे। चंदर पहले ठाकुर साहब(बिसारिया का दोस्त) से कहता हैं की सुधा उसकी गुरु की पूत्री हैं; वो उसके बारे में ऐसा सोच भी नहीं सकता। सुधा ने भी एकबार गेसू से कहा था की नहीं, चंदर के ऐसा कुछ नहीं हैं; कि उसे किसी से प्यार नहीं हैं।

    मैंने अभी अभी उपन्यास पढ़ा हैं और इन्टरनेट पर इसके विषय में टिप्पणिया सर्च करते करते यहाँ पहुंचा, इसलिए एकदम से कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं हूँ। शायद मैं गलत भी होऊ।
    रही बात उपन्यास की तो उस पर तो जा निसार हैं। पढ़ते पढ़ते कभी कभी मुझे बिच 2 सेकंड के लिए रुककर गहरी सांस लेनी पड़ती थी, यदि ऐसा न करता तब पेट में एक अजीब सा अवकाश महसूस होता, कुछ होने लगता। अगले दसेक दिनों तक मैं सिर्फ इसके बारे में सोचता रहूँगा, कोई सुर किताब न पढ़ पाऊंगा। इसके कुछ टुकड़े बार बार पढता रहूँगा। ये उपन्यास मैं बाद में भी बार बार पढता रहूँगा। कुछ लोगो को जबरन पढ़ाऊंगा।

    जवाब देंहटाएं