रविवार, 14 मार्च 2010

भाषा एकांगी नहीं होती l

हम भाषा के बदलते रूप की बात करते हैं और प्राय: भाषा को हिंग्लिश (हिंदी तथा इंग्लिश )तक ही सीमित रख देते हैं। जब भी कभी हिंदी भाषा की बात की जाती है तो पहला सवाल अक्सर ये ही देखा जाता है कि हिंदी भाषा को अंग्रेज़ी भाषा के वर्चस्व से कैसे बचाया जाए। हम अक्सर हिंदी भाषा को अंग्रेज़ी भाषा के सापेक्ष रखकर ही देखते हैं । इस मुद्दे को लेकर कुछ सेमिनार भी होते रहे हैं जैसे विश्वपुस्तक मेले में "हिंदी क्या है" और दिल्ली विश्वविद्यालय में भी इस विषय को लेकर सेमिनार हुए थे जिसमे बात आगे बढ़ते- बढ़ते अंग्रेज़ी और हिंदी तक ही सीमित रह गयी थी। मै जब भी इस तरह के सेमिनारों को सुनती हूँ तो मेरे जेहन में हमेशा एक बात आती है कि भाषा अब केवल हिंग्लिश तक ही सीमित नहीं रह गयी है बल्कि उससे भी आगे बढ़ कर वह मिक्सिंग की भाषा बन गयी है आज की भाषा विभिन्न कोडों (भाषा / बोली /शैली ) से उत्पन्न " कोड मिक्सिंग" की भाषा है। विभिन्न कोडों से उत्पन्न भाषा का यह रूप न तो पिजिन ही है और न ही क्रियोल । वास्तव में यह आज की जरुरत के हिसाब से भाषा की एक अलग बनावट है ।
जब हम भाषा की बात करते हैं तो उसमे कोई एक खास वर्ग नहीं होता बल्कि हर जाति, धर्म, लिंग, वर्ग , आयु आदि की भाषा उसमे सम्मिलित होती है। कोई अनपढ़ व्यक्ति हो या पढ़ा लिखा व्यक्ति, बुद्धिजीवी हो या आम जनता या फिर अख़बार पत्र -पत्रिकाएँ आदि कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ हमें भाषा की मिक्सिंग देखने को न मिलती हो । व्यक्ति जिस क्षेत्र से संबंधित होता है उस क्षेत्र की भाषा के आलावा भी वह अपनी जरूरतों के हिसाब से अन्य भाषाओँ /बोलियों को सीखता तथा समझता है और अपने भाषाई कोश का विकास करता है । इस भूमंडलीकरण के दौर में व्यक्ति कूप मंडूक होकर नहीं रह सकता। उसे अपने ज्ञान के विस्तार के लिए दूसरी भाषाओँ / बोलियों की ओर जाना ही पड़ता है । आज के दौर में केवल एक भाषा तक ही सीमित रहने का अर्थ है अपनी अभिव्यक्ति को सीमित करना , विकास के दौर में पिछड़ना। आज जब एक भाषा के साहित्य का दूसरी भाषा में अनुवाद हो रहा है ; कंप्यूटर , इन्टरनेट की भाषा हमारी भाषा पर प्रभाव डाल रही है तब भाषा के बदलते रूप को कैसे और क्यों रोका जाना चाहिए ? कोई भी वस्तु सदा एक सी नहीं रहती समय के साथ- साथ प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन आता ही है अत: भाषा में भी परिवर्तन आना लाज़मी है । हमारा पहला उद्देश्य भाषा का पांडित्य प्रदर्शन न करके आत्माभिव्यक्ति और सम्प्रेषण के साथ -साथ भाषा को तकनीक से जोड़ना होना चाहिए ।
हिंदी भाषा पर जब कभी, कहीं कुछ होता है तब हमेशा दो - तीन बातें बोली जाती हैं कि हमें हिंदी को अंग्रेज़ी के वर्चस्व से बचाना है , उसे राष्ट्रभाषा बनाना है आदि -आदि । जबकि हमें इन सभी बातों से आगे बढ़ कर यह सोंचना चाहिए कि दूसरी भाषा के समक्ष हम अपनी भाषा को उपयोगी भाषा कैसे बनाएं ? जो तकनीक से जुडी रोज़गार परक भाषा हो जिससे युवा वर्ग खुद ही इसकी ओर आकर्षित हो । हमें अपनी भाषा को सभी क्षेत्रों से जोड़ना होगा और इसके लिए हमें भाषा को सीमित दायरे से बाहर निकाल कर दूसरी भाषाओँ /बोलियों से निरंतर आ रहे शब्दों को अपनाते चलना होगा । कहा भी जाता है कि भाषा बहता नीर है अत: भाषा कभी भी बंधकर नहीं रह सकती वह समय के साथ -साथ अपनी जरूरतों को पूरा करती हुई आगे बढ़ती जाती है । इसीलिए हमारी भाषा आज - "मिक्सिंग- भाषा " बन गयी है और इस मिक्सिंग -भाषा ने व्यक्ति को समाज से जोड़ने में बड़ा ही महत्वपूर्ण काम किया है । भाषा एकांगी नहीं होती और न ही वह एकांगी दृष्टिकोण आधारित होकर अपना विकास कर सकती है । भाषा का विकास अन्य भाषाओँ के शब्दों एवं नए इजाद किये जा रहे शब्दों को सहर्ष स्वीकार करने में है । हमें भाषा की कोड - मिक्सिंग से हो रहे भाषा के विकास को सकारात्मक नज़रिए से देखने की जरुरत है न की किसी भाषा को वर्चस्व की भाषा बनाकर उसे थोपने की । किसी भाषा के पतन का एक महत्वपूर्ण कारण इसी थोपने की प्रवृति में छिपा है । जो संस्कृत के साथ हुआ या हो रहा है हमें हिंदी को उससे बचाना होगा और साथ ही हमें हिंदी को उस वर्चस्ववादी भाषावाद के खतरनाक रूढ़ीवाद से भी बचाना होगा जो हिंदी में अन्य भाषिक शब्दों के आगमन को " हिंदी के पतन " के रूप में देखता हैl ध्यान रहे कि यदि हम ऐसा करते हैं तो एक तरह से हम हिंदी में राज ठाकरे के" मराठी मानुष " की जुगाली करते ही प्रतीत होंगेl

1 टिप्पणी:

  1. प्रतिमा जी,
    आपके भाव अति पावन और पुनीत हैं, देखिये भाषा वही बनी रहेगी और बढती रहेगी... जिसमें अन्य भाषाओं के साथ मिल जुलनें की क्षमता रहेगी । शायद हिन्दी का यही गुण उसे अन्य भाषाओं से अलग करती है । हिन्दी में किसी भी भाषा के शब्द को मिक्स कीजिए अर्थपूर्ण ही लगेगा... ।

    एक छोटा सा उदाहरण देता हूं, रेलवे स्टेशन पर बैठे दो देहाती आपस में बात कर रहें हैं... भैया ट्रेन लेट है... अब सोचिए इसमें हिन्दी के कितने शब्द हैं और अंग्रेजी के कितने... । यही तो चमत्कार है हिन्दी भाषा का ।

    वैसे आज कल की ज़रुरत युवा और बुद्धीजीवी वर्ग को अंग्रेजी की अति-आवश्यकता से बचानें और हिन्दी को अपनें जीवन शैली में लाने का प्रयास करनें के लिए प्रेरित करनें मे होना चाहिये... और उसमे आपका यह प्रयास सराहनीय है... सो बधाई स्वीकारें..

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