स्त्री फिर चाहे वह सवर्ण हो, दलित हो या आदिवासी सभी को अपनी अस्मिता दूसरों से मांगनी पड़ रही है जैसे दलित समाज को अपनी अस्मिता सवर्ण समाज से। यह सर्वविदित है कि हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज रहा है यही कारण है कि रजिया सुलतान, लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं को पुरुषों से बेहतर होते हुए भी अपनी स्त्री होने की सज़ा भोगनी पड़ी। यह तो सिर्फ सवर्ण स्त्री की बात थी परन्तु दलित स्त्री उसे तो इस पुरुष प्रधान समाज के निम्न स्तर से भी निम्नत्तर स्थान देने पर भी लोगों की सेाच अभी स्पष्ट होती दिखाई नहीं देती। स्त्री-विमर्श को लेकर बहुत सारी बातें की जाती हैं। समय-समय पर गोष्ठियाँ-संगोष्ठियाँ, वर्कशाप और न जाने क्या-क्या होता रहता है परन्तु देखने वाली बात यह है कि इन सभी गोष्ठियों-संगोष्ठियों में केवल सवर्ण स्त्री को ही केन्द्र में रखा जाता है, दलित स्त्री या आदिवासी स्त्री के अधिकारों, उसकी यातनाओं, पीड़ाओं या अस्मिताओं के विषय में कहीं कोई चर्चा होती दिखाई नहीं देती। सभी सिर्फ अपने-अपने अधिकारों की बात करते हैं। हमारे समाज (दलित समाज) में भी हम देखते हैं कि अधिकांश दलित पुरुष ही विभिन्न कार्यक्रमों में दिखाई देते हैं दलित स्त्रियों की संख्या कुछ ही दिखलाई पड़ती है। स्वतंत्रता सभी को प्यारी है यह बात हमसे (दलित समाज) अधिक और कौन जान सकता है। इतने सालों की यातना झेलने के बाद आज भी हम अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए संघर्ष कर रहे हैं पर दलित स्त्रियाँ वे तो दलित पुरुषों से भी पीछे हैं। आज की दलित अस्मिता का प्रश्न वास्तव में दलित पुरुषों की अस्मिता पीछे हैं। आज की दलित अस्मिता का प्रश्न वास्तव में दलित पुरुषों की अस्मिता का प्रश्न है। आज कितनी दलित स्त्रियाँ ऐसी हैं जो वक्ता के रूप में विभिन्न कार्यक्रमों में आपको दिखाई पड़ती है उन्हें तो अपने दलित पुरुषों से भी अपने अधिकार मांगने पड़ते हैं। दलित स्त्रियों के विषय में तुलनात्मक रूप से दलित पुरुषों द्वारा ही अधिक लिखा जा रहा है फिर चाहे वह साहित्य की कोई भी विधा ही क्यों न हो। जब दलितों के विषय में दलित की बेहतर ढंग से लिख सकते हैं तो दलित स्त्रियों के विषय में दलित स्त्रियाँ क्यों नहीं? जबकि उन्हें तो समाज में रहकर दो-दो मार झेलनी पड़ती है एक तो स्त्री की दूसरी दलित होने की। दलित स्त्रियाँ अपनी यातनाओं की जितनी सहज अनुभूति कर सकती हैं उतनी अन्य व्यक्ति नहीं क्योंकि कल्पनाओं की भी एक सीमा होती है। यहाँ यह सवाल उठना लाज़मी है कि दलित स्त्रियों को रोका किसने है? पर क्या दलित स्त्रियों को दलित पुरुषों की अपेक्षा वे सामाजिक और आर्थिक अधिकार दिए जाते हैं जो उन्हें आगे बढ़ने में सहायक हों? यहाँ तक की उनके लिए एक खाका तैयार कर दिया जाता है जिस पर उन्हें चलना है।
हम सभी को अधिकार है कि हम समाज में आदर के साथ जी सकें परन्तु जब स्त्रियों की बात आती है तो ऐसा जान पड़ता है कि हम आदर तो दूर की कोड़ी है उन्हें मनुष्यत्व के पूरे अधिकार भी नहीं दे पा रहे हैं। हम ये चाहते हैं कि हमारे घरों की बहू-बेटियाँ पढ़े-लिखें, पैसा कमाए पर हम ये कभी नहीं चाहते कि शिक्षित, समझदार तथा आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने के बावजूद भी वे अपने फैसले स्वयं ले सके। साहित्य की ऐसी कितनी रचनाएँ हैं (विशेष रूप से दलित रचनाएँ) जिनमें दिखाया गया हो कि उक्त दलित स्त्री ने समाज और वर्ण व्यवस्था को पीछे छोड़ अपनी समझ से जो फैसला लिया वही इसका हल हो सकता था जबकि ये आपको एक सवर्ण स्त्री की कहानी में मिल जाएगा।
दूसरा, आज साहित्य की विभिन्न विधा की कितनी ऐसी रचनाएँ है जिनमें दलित स्त्रियों की पीड़ाओं और यातनाओं को केन्द्रित कर लिखा जा रहा है। जबकि दलित पुरुषों की यातनाओं के विषय में ढेरों रचनाएँ मिल जाती हैं। कुछ सीमित संख्या में दलित महिलाएँ अवश्य हैं जिन्होंने समाज के सामने अपनी बात रखी है पर उनकी संख्या भी कुछ तक ही सीमित रह गई है। वास्तव में हमारे समाज में कई स्तर बने हुए हैं जो समाज में उनके दबदबे को दर्शाते रहे हैं। पहला सवर्ण पुरुष वर्ग, दूसरा सवर्ण स्त्री तीसरा दलित पुरुष और सबसे अंतिम दलित स्त्री। दलित स्त्री को न केवल सामाजिक तथा आर्थिक भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है बल्कि घरेलू हिंसा की भी सबसे अधिक शिकार वही होती है।
तीसरा, हमें न केवल दलित स्त्रियों के साथ सवर्णों द्वारा होने वाले अत्याचार व दुराचारों के बारे में ही लिखना या बात करनी चाहिए बल्कि उन दलित और आदिवासी स्त्रियों की कथा तथा जीवनी भी लिखनी चाहिए जिससे एक आम दलित स्त्री भी प्रेरणा ले सके क्योंकि अब सवाल दलितों की यातनाओं का जिक्र करने का नहीं बल्कि इस सबसे आगे बढ़कर उन अधिकारों एवं उनकी अस्मिताओं का है जो हमें इस समाज में रहकर इस समाज से लेने है।
इस प्रकार देखा जाए तो भले ही हमारे समाज में पुरुष स्वतंत्र हो पर स्त्रियाँ अभी भी दलित ही हैं और ये पीड़ा तब और अधिक बढ़ जाती है जब शिक्षित होने के बावजूद वह अपने फैसले स्वयं नहीं ले सकती। क्या इसी को स्वतंत्रता कहते हैं कि अपने हकों के लिए भी उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़े?
आज दलित तथा आदिवासी स्त्रियों को अपने अस्तित्व की पहचान करनी है, उसकी रक्षा करनी है। हमें अपने ‘स्व’ के लिए संघर्ष करना है ताकि अप्रत्यक्ष रूप से जिन बेड़ियों से हम जकड़े हुए है उन्हें तोड़कर खुले आसमान में सांस ले सके। आखिर कब तक हम दूसरों की बेटी, बहू और पत्नी बनकर अपना जीवन यूँ ही काटते रहेंगे। कब हम अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की पहचान पा सकेंगे। वास्तव में दलित स्त्री-विमर्श का तो अभी सही मायनों में आरंभ ही नहीं हुआ है। आग़ाज़ अभी बाकी है।
इस प्रकार मेरे आलेख-पाठ के मुख्य बिंदु होंगे।
1) स्त्री बनाम सामाजिक, आर्थिक तथा घरेलू हिंसा
2) स्त्री, दलित एवं आदिवासी स्त्री बनाम पुरुष वर्चस्व
3) दलित स्त्री: ‘स्व’ की पहचान
4) दलित तथा आदिवासी स्त्री: स्वसाध्य के रूप में
5) दलित तथा आदिवासी स्त्री: एक प्रेरक के रूप में
हम सभी को अधिकार है कि हम समाज में आदर के साथ जी सकें परन्तु जब स्त्रियों की बात आती है तो ऐसा जान पड़ता है कि हम आदर तो दूर की कोड़ी है उन्हें मनुष्यत्व के पूरे अधिकार भी नहीं दे पा रहे हैं। हम ये चाहते हैं कि हमारे घरों की बहू-बेटियाँ पढ़े-लिखें, पैसा कमाए पर हम ये कभी नहीं चाहते कि शिक्षित, समझदार तथा आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने के बावजूद भी वे अपने फैसले स्वयं ले सके। साहित्य की ऐसी कितनी रचनाएँ हैं (विशेष रूप से दलित रचनाएँ) जिनमें दिखाया गया हो कि उक्त दलित स्त्री ने समाज और वर्ण व्यवस्था को पीछे छोड़ अपनी समझ से जो फैसला लिया वही इसका हल हो सकता था जबकि ये आपको एक सवर्ण स्त्री की कहानी में मिल जाएगा।
दूसरा, आज साहित्य की विभिन्न विधा की कितनी ऐसी रचनाएँ है जिनमें दलित स्त्रियों की पीड़ाओं और यातनाओं को केन्द्रित कर लिखा जा रहा है। जबकि दलित पुरुषों की यातनाओं के विषय में ढेरों रचनाएँ मिल जाती हैं। कुछ सीमित संख्या में दलित महिलाएँ अवश्य हैं जिन्होंने समाज के सामने अपनी बात रखी है पर उनकी संख्या भी कुछ तक ही सीमित रह गई है। वास्तव में हमारे समाज में कई स्तर बने हुए हैं जो समाज में उनके दबदबे को दर्शाते रहे हैं। पहला सवर्ण पुरुष वर्ग, दूसरा सवर्ण स्त्री तीसरा दलित पुरुष और सबसे अंतिम दलित स्त्री। दलित स्त्री को न केवल सामाजिक तथा आर्थिक भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है बल्कि घरेलू हिंसा की भी सबसे अधिक शिकार वही होती है।
तीसरा, हमें न केवल दलित स्त्रियों के साथ सवर्णों द्वारा होने वाले अत्याचार व दुराचारों के बारे में ही लिखना या बात करनी चाहिए बल्कि उन दलित और आदिवासी स्त्रियों की कथा तथा जीवनी भी लिखनी चाहिए जिससे एक आम दलित स्त्री भी प्रेरणा ले सके क्योंकि अब सवाल दलितों की यातनाओं का जिक्र करने का नहीं बल्कि इस सबसे आगे बढ़कर उन अधिकारों एवं उनकी अस्मिताओं का है जो हमें इस समाज में रहकर इस समाज से लेने है।
इस प्रकार देखा जाए तो भले ही हमारे समाज में पुरुष स्वतंत्र हो पर स्त्रियाँ अभी भी दलित ही हैं और ये पीड़ा तब और अधिक बढ़ जाती है जब शिक्षित होने के बावजूद वह अपने फैसले स्वयं नहीं ले सकती। क्या इसी को स्वतंत्रता कहते हैं कि अपने हकों के लिए भी उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़े?
आज दलित तथा आदिवासी स्त्रियों को अपने अस्तित्व की पहचान करनी है, उसकी रक्षा करनी है। हमें अपने ‘स्व’ के लिए संघर्ष करना है ताकि अप्रत्यक्ष रूप से जिन बेड़ियों से हम जकड़े हुए है उन्हें तोड़कर खुले आसमान में सांस ले सके। आखिर कब तक हम दूसरों की बेटी, बहू और पत्नी बनकर अपना जीवन यूँ ही काटते रहेंगे। कब हम अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की पहचान पा सकेंगे। वास्तव में दलित स्त्री-विमर्श का तो अभी सही मायनों में आरंभ ही नहीं हुआ है। आग़ाज़ अभी बाकी है।
इस प्रकार मेरे आलेख-पाठ के मुख्य बिंदु होंगे।
1) स्त्री बनाम सामाजिक, आर्थिक तथा घरेलू हिंसा
2) स्त्री, दलित एवं आदिवासी स्त्री बनाम पुरुष वर्चस्व
3) दलित स्त्री: ‘स्व’ की पहचान
4) दलित तथा आदिवासी स्त्री: स्वसाध्य के रूप में
5) दलित तथा आदिवासी स्त्री: एक प्रेरक के रूप में