दलित साहित्य (जिसे
अब बहुधा दलित विमर्श का नाम दिया जा रहा है) की बुनियाद में
सहानुभूति और स्वानुभूति की बहस आज भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका में है। इस आधार पर
देखें तो ये बँटवारा सिर्फ दलित और गैर-दलितों
के मध्य नहीं है बल्कि दलित साहित्य की आधारिक संरचना को भी प्रभावित किये हुए है।
एक दलित होने के नाते मुझे निश्चित ही स्वानुभूति के दलित साहित्य के पक्ष में
अपनी आवाज़ रखनी चाहिये और यह मानने में भी किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिये कि
भोगा हुआ यथार्थ देखे हुए अनुभव से ज्यादा पुख्ता होता है। जिन
दलितों को गाँव की चौपाल पर खुद तो क्या अपनी परछाई को बैठाने की इजाज़त नहीं थी
जिनके कानों में मंत्र उच्चार सुन लिए जाने पर सीसा पिघला दिया जाता हो, जहाँ मुखालफ़त करने पर ज़बान काट दी
जाती हो। अगर वो दलित अपनी वाणी में गैर-दलितों
को आज विश्वास की नज़र से नहीं देख पा रहे तो यह बिल्कुल संभव है कि इसके कारण
कहीं गैर-दलितों
के पूर्वजों और उनके अतीत में कहीं छिपे हुए हैं। दलित साहित्य पर और उनकी
समीक्षाओं को देखने के पश्चात यह ज़रूर देखा गया है कि इन समीक्षाओं में एक
आलोचनात्मक रुख का अभाव मिलता है लेकिन ऐसा कुछ ही पुस्तकों में मिलता है और हमारा
सरोकार दलित साहित्य की उन पुस्तकों से है जो न केवल दलितों के साथ किए गये
अत्याचार का कच्चाचिट्ठा खोलती हैं बल्कि अपनी स्थति का भी मूल्याँकन करतीं हैं जिसके द्वारा उन्हें
इतने वर्षों तक इस शोषण की दुर्दमनीयता को झेलना पड़ा। लेखिका रजतरानी मीनू की पुस्तक हिंदी दलित
कथा-साहित्यःअवधारणाएँ और
विधाएँ अपना सारा ज़ोर मूल्याँकन पर रखती है और यहीं यह पुस्तक अपनी उन समकालीन
पुस्तकों से आगे निकल जाती है जो समीक्षा के नाम पर कहानियों की व्याख्या को ही अपनी
समीक्षा का आधार बनाती हैं। रजतरानी की यह भी एक उपलब्धि है कि वह इस मूल्याँकन का
आधार अंबेडकरवादी दर्शन को बनाती हैं। यह पुस्तक न केवल दलित साहित्य के विषय में
वर्तमान समय तक की सम्पूर्ण जानकारी देती है बल्कि दलित साहित्य से संबंधित कई
प्रश्नों को सिलसिलेवार ढ़ंग से उठातीं हैं। लेखिका दलित साहित्य का इतिहास बौद्ध
काल से प्रारंभ मानते हुए सिद्ध,
संत साहित्य के साथ साथ डॉ अंबेडकर, महात्मा गाँधी, ज्योतिबा फुले, हीरा डोम आदि के विषय में अपना मूल्याँकन
देती हैं उनका कहना है कि दलित साहित्यकारों पर सबसे अधिक प्रभाव अंबेडकर का है।
दलित साहित्यकार डॉ. . अंबेडकर
के पद-चिह्नों
पर ही अधिक चलते हैं। वे हिंदू धर्म के संबंध में डॉ. अंबेडकर की समझ को
उद्धृत करती हैं -
"हिंदू धर्म मेरी बुद्धि को जँचता नहीं, मेरे स्वाभिमान को भाता नहीं, क्योंकि मनुष्य धर्म के लिए नहीं है बल्कि
धर्म मनुष्य के लिये है। जो धर्म तुम्हारी मनुष्यता का मूल्य नहीं मानता, उस धर्म में तुम क्यों रहते हो? जो धर्म तुम्हें पानी तक नहीं पीने देता, उस धर्म में तुम क्यों रहते हो? जो धर्म तुम्हें शिक्षा ग्रहण नहीं करने
देता, उस धर्म में तुम क्यों
रहते हो? जो धर्म
तुम्हारी नौकरी में बाधक बनता है,
उस धर्म में तुम क्यों रहते हो?
जो धर्म तुम्हें बात बात पर अपमानित करता है उस धर्म में तुम क्यों रहते हो?"(पृष्ठ २२७)
लेखिका की इस पुस्तक
की ख़ासियत यह भी है कि यह स्वानुभूति और सहानुभूति की बहसों की अपेक्षा दलित
चेतना पर बहस करना महत्वपूर्ण मानती हैं -और कहती है कि दलित साहित्यकार डॉ. अंबेडकर से प्रेरित हैं लेकिन जो लेखक प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं हैं, परंतु वे दलित चेतना, दलित मुक्ति से साहित्य सृजन कर रहे हैं, ऐसे साहित्यकारों को भी दलित साहित्य में
रखा जाना चाहिए।" (पृष्ठ
२२)
पिछले कुछ समय से कुछ
दलित लेखक दलित साहित्य के संदर्भ में एक कट्टरतावादी नज़रिया अपना रहें है ऐसे समय में अगर लेखिका
दलित साहित्य में उदारवादी और लोकतांत्रिक पक्षधरता पर बात करती हैं तो इसका
स्वागत गैर-दलितों
द्वारा भी किया जाना चाहिए हालाँकि वे इसकी मोहताज नहीं है। वे दलित साहित्य(कथा साहित्य) के संबंध में
एक स्वतंत्र दर्शन की हिमायती हैं। दलित साहित्य का उद्देश्य केवल अपनी समस्याओं,
भेदभावों को बताना ही नहीं है बल्कि दलित वर्ग अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज
में जागृति लाना भी है। वे उन रूढ़ियों,
परंपराओं तथा ढकोसलों को तोड़ना चाहता हैं जो मनुष्य से उसकी मनुष्यता के
अधिकारों को छीनते हैं।
अपनी रचनाओं के माध्यम
से वे उन रूढ़ियों पर प्रहार करते हैं जिन रूढ़ियों के कारण उन्होंने उम्रभर अपमान
सहा हैं। उनकी कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, नाटक, कविता आदि
रचनाओं में उनके इस विरोध को देखा जा सकता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कहानी 'सलाम' में भंगी समाज में पाई जाने वाली एक रस्म का खुलकर विरोध
करते हैं भंगी समाज मे विवाह के अवसर पर वर-वधु
को अपने-अपने
ससुराल में गैर-दलितों
के दरवाजे पर जाकर सलाम करना होता है और इसके बदले वे उन्हें नए-पुराने कपड़े
बर्तन आदि देते हैं। लेखक ने इसका विरोध ही नहीं किया बल्कि दलित नायक के
आत्मसम्मान को जागृत करने की कोशिश भी की है।
'भय',
'अंधड़' तथा 'घाटे का सौदा' कुछ ऐसी कहानियाँ हैं। जिनके चरित्र समाज
में पाए जाने वाले जातिगत भेद-भाव
के कारण अपनी जाति छिपा-छिपा
कर रह रहे हैं परंतु एक भय उन्हें सदैव उन्हें सदैव लगा रहता है कि कहीं आज किसी
को उनकी जाति के संबंध में सही जानकारी न मिल जाए और वे फिर उसी भावना को झेलने पर विवश हो जाएँ जिससे कि वे बचना चाहते हैं।
प्रत्यक्ष या परोक्ष
रूप से यह सामाजिक भेदभाव ही उनकी कमज़ोर आर्थिक स्थिति का कारण है। यही कारण है
कि शिक्षा का अधिकार तथा मेधावी छात्र होने के बावजूद भी 'सौराज'(मेरा बचपन मेरे कंधों पर) तथा
ओमप्रकाश वाल्मीकि(जूठन) जैसे बालक की
शिक्षा प्राप्त करने के लिए दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हो जाते हैं। कई रचनाओं में
सास्कृतिक मोह भी देखा जा सकता है। जैसे मोहनदास नैमिशराय ने कर्ज़ कहानी में
दलितों को मृत्युभोज और कथित धार्मिक संस्कारों के प्रति विद्रोही तथा मृत्यु के बाद किए
जाने वाले भोज की परंपरा को तोड़ते हुए दिखाया गया है। बिपिन बिहारी पुरातन कहानी के अंतर्गत दहेज के लेन-देन व
विवाहों के आयोजन में दिखावे और प्रदर्शनों का विरोध करते हैं। दलित साहित्यकार न
केवल अपने साथ हुए भेदभाव, तिरस्कार व
अवहेलना के प्रति सचेत हैं बल्कि वे शैक्षिक तथा राजनीतिक दृष्टि से भी जागरूक
हैं। मुंबई कांड ओमप्रकाश वाल्मीकि की राजनीतिक चेतना की
कहानी है। "इस
कहानी का सार तत्व इस प्रकार है कि "जुलाई १९९९ में मुंबई की घाटकोपर दलित बस्ती में
स्थापित बाबा साहेब अंबेडकर की प्रतिमा का अपमान किया गया। इस अपमान के विरोध में
प्रदर्शन करते हुए अनेक दलित व्यक्ति शहीद हुए थे। उस संवेदनशील घटना से तमाम
दलितों के मन में उठे प्रश्नों को मनोवैज्ञानिक तरह से उठाया गया है।"(पृष्ठ204) " "
हमारे समाज में पुरुषों को स्त्रियों से श्रेष्ठ माना जाता है उन्हें अपने फैसले स्वयं लेने का अधिकार नहीं है उसके जीवन से संबंधित सभी फैसले पिता, पति या बेटा ले सकता है वह स्वयं नहीं। दलित स्त्रियों की स्थिति समाज में दलित पुरुषों से भी पीछे है यानि हीन से भी हीनतर। दलित स्त्री को न केवल दलित जाति में होने का बल्कि एक स्त्री होने का अभिशाप भी झेलना पड़ता है। लेखिका ने अपनी पुस्तक में कई स्थानों पर दलित स्त्री की दशा का वर्णन किया है वे कहती है "दलित स्त्री मात्र स्त्री होने की त्रासदी नही सहती बल्कि दलित जाति से होने के कारण वह लिंग-भेद और जाति-भेद सहते हुए दोहरे तिहरे आक्रमण झेलती है। एक पुरुष प्रधान समाज होने के कारण वह अपने ही समाज के पुरुषों की दृष्टि से भी दूसरे दर्जे की प्राणी मात्र है, जो उनके अनुसार कम बुद्धि की है। इसको आधार बनाकर तमाम उलाहने, अवहेलनाएँ, तिरस्कार उसे झेलने पड़े हैं। इस कारण उसे अपनो से ही उपेक्षा तथा प्रताड़ना मिलती है। दूसरी ओर गैर-दलित समाज उसे दो तरह से कमजोर पाता है, एक तो वह स्त्री है, दूसरे दलित जाति से होती है।"। ये " सभी विषय अत्यंत संवेदनशील हैं और इन विषयों के लिए गहरी भावाभिव्यक्ति तथा संवेदना की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि दलित साहित्यकारों की रचनाओं मे कला पक्ष की अपेक्षा भाव पक्ष अधिक मजबूत होता है। कोई भी रचना भीतर और बाहर के संघर्ष का परिणाम होती है और प्रत्येक रचना की शैली रचनाकार के अनुभवों पर निर्भर रहती है। यही कारण है कि दलित रचनाकारों की रचनाओं में प्रचलित रूपकों और उपमानों से भिन्न रूपक और उपमाएँ दिखाई देती है। "आक्रोश, विद्रोह, और विवशता के तेवर भी दलित कहानियों की शिल्पगत और परिवर्तनगामी पहचान है। दलित कथा- साहित्य में क्षेत्रीय परिवेश जाति विशेष में प्रचलित शब्द प्रयुक्त हुए हैं जैसे दूणना(सुअर को मारकर भूनना), जिनवर, बींधना, ठिबरी, पोरपोर, सुन्न, खंगाला, तावजल्दी से)), साद्दी((शादी, धमक, परली, परले, झट, पसरी-पसरा इत्यादि"(पृष्ठ 266)
ओमप्रकाश वाल्मीकि रूखे बालों की तुलना सण से तथा दाँत की तुलना भड़भूजे की कड़ाही में उछलते मकई के दाने से करते हैं। ये अपने आप में एक नई तरह का प्रयोग है। आज दलित साहित्यकारों का मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज से पृथक अपनी अस्मिता की तलाश है। वे न केवल सामाजिक दृष्टि से बल्कि आर्थिक तथा शैक्षिक दृष्टि से सुदृढ़ होना चाहते हैं वे दलित स्त्री के सशक्तिकरण की बात करते हैं दलित साहित्कार अपनी पूरी ऊर्जा के साथ गतिशील हैं तथा दलित साहित्य उत्तरोत्तर विकास करता जा रहा है। यह पुस्तक न केवल दलित साहि्त्य के विषय में पूरा विवरण देती है बल्कि दलित साहित्य को गतिशीलता भी प्रदान करती है। लेखिका दलित साहित्य से संबंधित प्रश्नों को उठाती ही नहीं है बल्कि उनका विश्लेषण भी करती चलती हैं।
रजतरानी 'मीनू' की पुस्तक 'हिंदी दलित कथासाहित्यः अवधारणाएँ और विधाएँ' की पुस्तक समीक्षा)
हमारे समाज में पुरुषों को स्त्रियों से श्रेष्ठ माना जाता है उन्हें अपने फैसले स्वयं लेने का अधिकार नहीं है उसके जीवन से संबंधित सभी फैसले पिता, पति या बेटा ले सकता है वह स्वयं नहीं। दलित स्त्रियों की स्थिति समाज में दलित पुरुषों से भी पीछे है यानि हीन से भी हीनतर। दलित स्त्री को न केवल दलित जाति में होने का बल्कि एक स्त्री होने का अभिशाप भी झेलना पड़ता है। लेखिका ने अपनी पुस्तक में कई स्थानों पर दलित स्त्री की दशा का वर्णन किया है वे कहती है "दलित स्त्री मात्र स्त्री होने की त्रासदी नही सहती बल्कि दलित जाति से होने के कारण वह लिंग-भेद और जाति-भेद सहते हुए दोहरे तिहरे आक्रमण झेलती है। एक पुरुष प्रधान समाज होने के कारण वह अपने ही समाज के पुरुषों की दृष्टि से भी दूसरे दर्जे की प्राणी मात्र है, जो उनके अनुसार कम बुद्धि की है। इसको आधार बनाकर तमाम उलाहने, अवहेलनाएँ, तिरस्कार उसे झेलने पड़े हैं। इस कारण उसे अपनो से ही उपेक्षा तथा प्रताड़ना मिलती है। दूसरी ओर गैर-दलित समाज उसे दो तरह से कमजोर पाता है, एक तो वह स्त्री है, दूसरे दलित जाति से होती है।"। ये " सभी विषय अत्यंत संवेदनशील हैं और इन विषयों के लिए गहरी भावाभिव्यक्ति तथा संवेदना की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि दलित साहित्यकारों की रचनाओं मे कला पक्ष की अपेक्षा भाव पक्ष अधिक मजबूत होता है। कोई भी रचना भीतर और बाहर के संघर्ष का परिणाम होती है और प्रत्येक रचना की शैली रचनाकार के अनुभवों पर निर्भर रहती है। यही कारण है कि दलित रचनाकारों की रचनाओं में प्रचलित रूपकों और उपमानों से भिन्न रूपक और उपमाएँ दिखाई देती है। "आक्रोश, विद्रोह, और विवशता के तेवर भी दलित कहानियों की शिल्पगत और परिवर्तनगामी पहचान है। दलित कथा- साहित्य में क्षेत्रीय परिवेश जाति विशेष में प्रचलित शब्द प्रयुक्त हुए हैं जैसे दूणना(सुअर को मारकर भूनना), जिनवर, बींधना, ठिबरी, पोरपोर, सुन्न, खंगाला, तावजल्दी से)), साद्दी((शादी, धमक, परली, परले, झट, पसरी-पसरा इत्यादि"(पृष्ठ 266)
ओमप्रकाश वाल्मीकि रूखे बालों की तुलना सण से तथा दाँत की तुलना भड़भूजे की कड़ाही में उछलते मकई के दाने से करते हैं। ये अपने आप में एक नई तरह का प्रयोग है। आज दलित साहित्यकारों का मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज से पृथक अपनी अस्मिता की तलाश है। वे न केवल सामाजिक दृष्टि से बल्कि आर्थिक तथा शैक्षिक दृष्टि से सुदृढ़ होना चाहते हैं वे दलित स्त्री के सशक्तिकरण की बात करते हैं दलित साहित्कार अपनी पूरी ऊर्जा के साथ गतिशील हैं तथा दलित साहित्य उत्तरोत्तर विकास करता जा रहा है। यह पुस्तक न केवल दलित साहि्त्य के विषय में पूरा विवरण देती है बल्कि दलित साहित्य को गतिशीलता भी प्रदान करती है। लेखिका दलित साहित्य से संबंधित प्रश्नों को उठाती ही नहीं है बल्कि उनका विश्लेषण भी करती चलती हैं।
रजतरानी 'मीनू' की पुस्तक 'हिंदी दलित कथासाहित्यः अवधारणाएँ और विधाएँ' की पुस्तक समीक्षा)
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